मंदिर की परंपरा, पैड़ी पर बैठना क्यों, मंदिर दर्शन के बाद क्या करें – एक आध्यात्मिक कारण

मंदिर की परंपरा, पैड़ी पर बैठना क्यों, मंदिर दर्शन के बाद क्या करें – एक आध्यात्मिक कारण

मंदिर की पैड़ी पर बैठने की परंपरा – एक आध्यात्मिक कारण

हमारे बुजुर्गों की परंपराएं केवल मान्यताएं नहीं, बल्कि गहरे आध्यात्मिक अर्थ और जीवन शिक्षाएं समेटे होती हैं। आपने अक्सर सुना होगा कि मंदिर में दर्शन करने के बाद थोड़ी देर मंदिर की पैड़ी (सीढ़ी या ओटले) पर बैठना चाहिए। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि इस परंपरा का वास्तविक उद्देश्य क्या है?

आज के समय में लोग मंदिर की पैड़ी पर बैठकर अक्सर राजनीति, व्यापार या घरेलू विषयों पर चर्चा करते नजर आते हैं। जबकि प्राचीन काल में यह स्थान ध्यान, प्रार्थना और आत्मचिंतन के लिए निर्धारित किया गया था।

परंपरा का वास्तविक उद्देश्य

मंदिर की पैड़ी पर बैठना एक आध्यात्मिक विराम लेने जैसा है। यह वह क्षण होता है जब हम ईश्वर के सान्निध्य से लौटते समय उनकी कृपा का धन्यवाद करते हैं और अपने जीवन के लिए एक विशेष प्रार्थना करते हैं। परंपरा के अनुसार, उस समय एक शांत भाव से एक पवित्र श्लोक बोला जाता था जिसे आज बहुत कम लोग जानते हैं:

यह श्लोक है:

अनायासेन मरणम्,
बिना देन्येन जीवनम्।
देहान्ते तव सान्निध्यम्,
देहि मे परमेश्वरम्।।


श्लोक का अर्थ

  • अनायासेन मरणम् – हे प्रभु! मुझे बिना कष्ट के मृत्यु प्राप्त हो।

  • बिना देन्येन जीवनम् – मेरा जीवन आत्मसम्मान और गरिमा के साथ बीते, कभी किसी पर निर्भर ना होना पड़े।

  • देहान्ते तव सान्निध्यम् – जीवन के अंत में मुझे आपके दिव्य सान्निध्य की प्राप्ति हो।

  • देहि मे परमेश्वरम् – हे ईश्वर! मुझे यह तीनों वरदान दें।


आने वाली पीढ़ियों को बताएं

यह श्लोक न केवल एक प्रार्थना है, बल्कि एक आदर्श जीवन दर्शन भी है – जिसमें सम्मानपूर्वक जीना, कष्टरहित मृत्यु, और अंत में प्रभु की शरण की कामना है। यह परंपरा आने वाली पीढ़ियों तक जरूर पहुंचनी चाहिए। जब भी आप मंदिर जाएं, दर्शन के बाद कुछ क्षण मंदिर की पैड़ी पर बैठें, ध्यान करें और यह श्लोक स्मरण करें।


संस्कृति से जुड़ना, केवल परंपरा निभाना नहीं – समझना और अपनाना भी है।

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