शनि ग्रह वैदिक मंत्र शनिवार व्रत कैसे करें, सम्पूर्ण कथा पूजन और उद्यापन विधि शनि पाया

शनि ग्रह वैदिक मंत्र शनिवार व्रत कैसे करें, सम्पूर्ण कथा पूजन और उद्यापन विधि शनि पाया
June 12, 2025
शनि ग्रह मन्त्र
शनि ग्रह उग्र प्रकृति का ग्रह है। जीवन में इसका प्रभाव अत्यन्त महत्वपूर्ण होता है। शनि को तीव्र ग्रह माना जाता है क्योंकि यह तामस स्वभाव वाला, चिंता कारक ग्रह है। मनुष्य के जीवन में सबसे अधिक चिंता का कारण आयु, मृत्यु, धन हानि, घाटा मुकदमा, शत्रुता इत्यादि है, सभी लोग शनि ग्रह की शांति चाहते हैं। आश्चर्य की बात यह भी है कि शनि सूर्य पुत्र होते हुए भी अपने पिता से शत्रुवत व्यवहार करता है और कई स्थितियों में तो यह सूर्य के प्रभाव को भी कम कर देता है। यह मकर एवं कुंभ राशि का स्वामी है। इसका उच्च स्थान तुला राशि तथा नीच स्थान मेष राशि है।
शनि ग्रह बुध के साथ सात्विक व्यवहार तथा शुक्र के साथ होने पर राजसी व्यवहार तथा चन्द्रमा और सूर्य के साथ शत्रुवत व्यवहार करता है। यह मंद गति का ग्रह है और इससे आकस्मिक विपत्ति, नौकरी के अलावा, राजनैतिक जीवन में सफलता, असफलता जानी जाती है। यह ग्रह तस्करी, जासूसी, दुष्कर्म भी सम्पन्न करा सकता है। यह अपने स्थान से, तीसरे, सातवें और दसवें भाव को भी पूर्ण दृष्टि से देखता है। विंशोत्तरी दशा में शनि की महादशा 19 वर्ष की होती है। यह 29 वर्ष 5 महीने 17 दिन में 12 राशियों का भ्रमण कर लेता है।
शनि साधना कौन करे?
शनि उग्र प्रकृति का क्रूर ग्रह है। इस ग्रह के विपरीत प्रभाव से, एक्सीडेंट, कर्जा चढ़ना, कोर्ट केस, तांत्रिक प्रयोग, मृत्यु, झूठी बदनामी, जेल जाना, नशा करना, बर्बाद होना, धन हानि, शत्रु से नुकसान, चोरी होना, दु:ख, चिंता, दुर्भाग्य, पैसा फंसना, समय पर काम न होना, घर में क्लेश बना रहना, पारिवारिक झगड़े, अगर स्त्री हो तो उसकी शादी लेट होना, अच्छा पति न मिलना, पति का शराब पीना, लड़ाई झगड़े करना, अपनी इच्छा से विवाह न होना, घर से भाग जाना, संतान कष्ट, पुत्र प्राप्ति न होना, अपमान, तनाव, आर्थिक तंगी, गरीबी, नौकरी न लगना, प्रमोशन न होना, व्यापार न चलना, बच्चों से नुकसान अर्थात बच्चे का बिगड़ना, शिक्षा प्राप्त न होना, परीक्षा में फेल होना, गुप्त शत्रु होना, गुप्त स्थानों के रोग, जोड़ो के दर्द होना, साँस की समस्या, पेट के रोग, शरीर में मोटापा, बीमारियों पर पैसा खर्चा होना, जीवन में असफलता आदि सब शनि की महादशा, अंतर दशा, गोचर या शनि के अनिष्ट योग होने पर होता है।
यदि आपके जीवन में इस तरह की कोई समस्या आ रही है तो कहीं न कहीं शनि ग्रह आपको अशुभ फल दे रहा है। शनि ग्रह के अशुभ फल से बचने के लिए अन्य बहुत से उपाय है पर सभी उपायों में मन्त्र का उपाय सबसे अच्छा माना जाता है। इन मंत्रों का कोई नुकसान नहीं होता और इसके माध्यम से शनि ग्रह के अनिष्ट प्रभाव से पूर्णता बचा जा सकता है। इसका प्रभाव शीघ्र ही देखने को मिलता है।
किसी कारण वश आप यदि साधना न कर सके तो शनि तांत्रोक्त मन्त्र की नित्य 5 माला काले आसन पर बैठकर काले हकीक की माला से या रुद्राक्ष माला से जाप करें तब भी शनि ग्रह का विपरीत प्रभाव शीघ्र समाप्त होने लग जाता है पर ऐसा देखा गया है कि मंत्र जाप छोड़ने के बाद फिर पुन: आपको शनि ग्रह के अनिष्ट प्रभाव देखने को मिल सकते है इसलिए साधना करने का निश्चय करें तो अधिक अच्छा है। अगर आप साधना नहीं कर सकते तो किसी योग्य पंडित से भी करवा सकते है।
शनि का रत्न:
रत्न विज्ञान के अनुसार शनि ग्रह का रत्न नीलम है। शनिवार के दिन शाम को सवा पांच रत्ती का नीलम रत्न दाहिने हाथ की मध्यमा (बीच की अंगुली) अंगुली में चांदी की अंगूठी या सफ़ेद सोने में बनवाकर धारण करना चाहिये।
साधना विधान:
शनि साधना किसी भी शनिवार से प्रारम्भ कर सकते है। यह साधना शाम को (7:30 से 10:30 के बीच) करनी चाहिए, शनि साधना को करने के लिए साधक स्नान आदि से पवित्र हो कर काले रंग के वस्त्र धारण कर लें। पश्चिम दिशा की ओर मुख कर बैठ जायें, अपने सामने लकड़ी की चौकी पर काले रंग का कपड़ा बिछा कर उस पर शिव (गुरु चित्र) चित्र या मूर्ति स्थापित कर, मन ही मन शिव जी से साधना में सफलता हेतु आशीर्वाद प्राप्त करें। शिव चित्र के सामने एक थाली रखे, उस थाली के बीच काजल से U बनाये, उस U के बीच साबुत काली उड़द की दाल भर दे, उसके ऊपर प्राण प्रतिष्ठा युक्त “शनि यंत्र’ स्थापित कर दें। यंत्र के सामने शुद्ध तेल का दिया जलाये फिर संक्षिप्त पूजन कर दाहिने हाथ में पवित्र जल लेकर विनियोग करें –
विनियोग:
हे शनि देव आप सूर्य पुत्र, वक्रगति, कृष्ण वर्णीय रूप में हैं। सूर्य पुत्र एवं शक्ति सम्पन्न देव का मैं साधक विधि-विधान सहित पूजन करता हूँ।
विनियोग के पश्चात् गुरु का ध्यान करें—
नीलद्दुतिं शूलधरं किरीटिनं गृधस्थितं त्रासकरं धनुर्द्धरम ।
चतुर्भुजं सूर्यसुतं प्रशान्तं, वन्दे सदाऽभीष्टकरं वरेणयम् ॥
ध्यान के पश्चात् साधक एक बार पुन: ‘शनि यंत्र’ का पूजन कर, पूर्ण आस्था के साथ ‘काली हकीक माला’ से या रुद्राक्ष माला से शनि गायत्री मंत्र की एवं शनि सात्विक मंत्र की एक-एक माला मंत्र जप करें-
शनि गायत्री मंत्र :
॥ॐ भगभवाय विद्महे मृत्युपुरुषाय धीमहि तन्नो शनि: प्रचोदयात् ॥
शनि सात्विक मंत्र :
॥ ॐ शं शनैश्र्वराय नम: ॥
इसके बाद साधक शनि तांत्रोक मंत्र की नित्य 23 माला 11 दिन तक जाप करे।
शनि तांत्रोक्त मंत्र:
॥ ॐ प्रां प्रीं प्रौं स: शनये नम: ॥
शनि स्तोत्र:
नित्य मन्त्र जाप के बाद शनि स्तोत्र का पाठ हिन्दी या संस्कृत में अवश्य करें
नम: कृष्णाय नीले शितिकण्ठनिभाय च ।
नम: कालाग्निरूपाय कृतान्ताय च वै नम: ॥1॥
नमो निर्मासदेहाय दीर्घश्मश्रुजटाय च ।
नमो विशालनेत्रायशुष्काय भयाकृते ॥2॥
नमो : पुष्कलगात्राय स्थूलरोम्णे च वै पुनः ।
नमो दीर्घाय शुष्काय कालदंष्ट्राय ते नम: ॥3॥
नमस्ते कोटराक्षाय दुर्निरीक्षाय वै नम: ।
नमो घोराय रौद्राय भीषणाय करालिने ॥4॥
नमस्ते सर्वभक्षाय बलीमुखाय ते नम: ।
सूर्यपुत्र नमस्तेऽस्तु भास्कराऽभयदाय च ॥5॥
अधोदृष्टे नमस्तेऽस्तु संवर्तकाय ते नम: ।
नमो मन्दगते तुभ्यं निस्त्रिंशाय नमोऽस्तुते ॥6॥
तपसा दग्ध देहाय नित्यं योगरताय च ।
नमो नित्यं क्षुधार्ताय अतृप्ताय च वै नम: ॥7॥
ज्ञानचक्षुष्मते तुभ्यं काश्यपात्मजसूनवे ।
तुष्टो ददासि वै राज्यं रुष्टो हरसि तत्क्षणात् ॥8॥
देवासुरमनुष्याश्य सिद्धिविद्याधरोरगा: ।
त्वया विलोकिता: सर्वे नाशं यान्ति च मूलतः ॥9॥
प्रसादं कुरु मे देव वरार्होऽस्मात्युपात्रत: ।
मया स्तुत: प्रसन्नास्य: सर्व सौभाग्य दायक: ॥10॥
स्तोत्र का भावार्थ:
काले और नीले रंग के शरीर वाले, भगवान शंकर के सदृश दीप्तिमान, प्रलय कालीन अग्नि के समान तीक्ष्ण एवं यमराज के समान भयावह शनिदेव को मैं नमन करता हूं। ॥1॥
मांस से रहित देह, लम्बी दाढ़ी एवं जटाओं से युक्त, रूद्र एवं डरावनी बड़ी-बड़ी आंखों वाले शनिदेव को नमस्कार करता हूँ।॥2॥
भरे-पूरे शरीर से युक्त, लम्बे-लम्बे रोम समूह वाले, विशाल और शुष्क शरीरधारी, भयप्रद दांतों वाले शनिदेव को मेरा नमन है।॥3॥
अन्दर धंसी हुई आंखों वाले, जिसकी ओर देख पाना कठिन है। घोर, तीक्ष्ण, भीषण एवं विकराल शनिदेव को मेरा प्रणाम।॥4॥
हे बलिमुख! आप सब कुछ भक्षण कर जाते है। हे सूर्य पुत्र। आप अभय देने वाले हैं, आपको मेरा नमस्कार है।॥5॥
नीची द्रष्टि किये हुए सभी को अपने वश में करने वाले, मंदगति वाले, तलवार धारण करने वाले शनिदेव को मेरा नमन स्वीकार हो।॥6॥
तपो बल से अपने देह को साधे हुए, निरन्तर योगाभ्यास में लगे हुए, सदैव भूख से दु:खी और असंतुष्ट रहने वाले शनिदेव को मेरा प्रणाम है।॥7॥
कश्यप गोत्रीय सूर्यपुत्र शनिदेव ज्ञान दृष्टि से युक्त हैं। प्रसन्न होने पर राज्य प्रदान कर सकते हैं, अप्रसन्न होने पर उसी समय सर्वस्व नष्ट कर देते हैं।॥8॥
आपके किञ्चित भी अप्रसन्न होने पर देव, असुर, मनुष्य, सिंह, विषधर तथा समस्त सर्प आदि का सर्वनाश हो जाता है।॥9॥
हे शनिदेव! मैं आपकी शरण में हूँ, आप वर देने में समर्थ हैं, मेरी स्तुति से प्रसन्न होकर मुझे सौभाग्य प्रदान करें।॥10॥
शनि मंत्र साधना का समापन:
यह साधना ग्यारह दिन की है। साधना के बीच साधना नियम का पालन करें। भय रहित होकर पूर्ण आस्था के साथ ग्यारह दिन मंत्र जप करें। नित्य जाप करने से पहले संक्षिप्त पूजन अवश्य करें। साधना के बारे में जानकारी गुप्त रखें। ग्यारह दिन तक मन्त्र का जाप करने के बाद मंत्र का दशांश (10%) या संक्षिप्त हवन करें। हवन के पश्चात् यंत्र को अपने सिर से उल्टा सात बार घुमाकर दक्षिण दिशा में किसी निर्जन स्थान या पीपल के नीचे रख दें, इस तरह से यह साधना पूर्ण मानी जाती है। धीरे-धीरे शनि अपना अनिष्ट प्रभाव देना कम कर देता है। शनि से संबंधित दोष आपके जीवन से समाप्त हो जाते है।
शनिवार व्रत का महात्म्य एवं विधि-विधान, व्रत कथा
शनिदेव में न्याय के देवता हैं। शनिवार का दिन शनिदेव को प्रसन्न करने के लिए विशेष महत्व का दिन है। शनिदेव की टीन की चादर की बनी मूर्ति की पूजा की जाती है। घर अथवा मंदिर की अपेक्षा पीपल तथा शमी वृक्ष के नीचे मूर्ति रखकर पूजा करना अधिक लाभदायक रहता है।
कोणस्थ, पिंगल, वभ्रु, कृष्ण, रौद्रान्तक, यम, सौर, शनिश्चर, मन्द और पिप्पला शनिदेव के दस नाम हैं। पूजा के बाद इनके साथ नमः लगाकर दस बार शनिदेव को नमन करने और उनके मंत्र ‘ॐ प्रां प्रीं प्रौं सः शनैश्चराय नमः’का यथाशक्ति जाप करने से शनिदेव प्रसन्न होते हैं।
शनिवार व्रत की विधि | इस व्रत को शुक्ल पक्ष के प्रथम (जेठे) शनिवार से आरंभ करें। व्रत 51 या 31 करने चाहिए। व्रत के दिन काला वस्त्र धारण करके बीज मंत्र ‘ॐ प्रां प्रीं प्रौं सः शनैश्चराय नमः’ की 19 या 3 माला का जाप करें। फिर एक बर्तन में शुद्ध जल, काले तिल, काले फूल या लवंग (लौंग), गंगाजल तथा शक्कर, थोड़ा दूध डालकर पश्चिम की ओर मुंह करके पीपल वृक्ष की जड़ में डाल दें। भोजन में उड़द के आटे का बना पदार्थ, पंजीरी, कुछ तेल से पका हुआ पदार्थ कुत्ते व गरीब को दें तथा तेलपक्व वस्तु के साथ केला व अन्य फल स्वयं प्रयोग में लाना चाहिए। यही पदार्थ दान भी करें। शनिवार के व्रत के दिन अपने मस्तक पर काला तिलक करें। शनि देव की प्रतिमा अथवा शनि ग्रह के यंत्र को स्वर्ण पत्र, रजत पत्र, ताम्रपत्र अथवा भोजपत्र पर अंकित करके इसकी विधिवत षोडशोपचार से पूजा आराधना करके यथाशक्ति शनि देव के मंत्र का जाप करना चाहिए।
शनिवार व्रत उद्यापन विधि |
शनिवार के व्रत के उद्यापन के लिए यथासंभव शनि ग्रह का दान जैसे नीलम, सुवर्ण, लोहा, उड़द, कुल्थी, तेल, कृष्णवस्त्र, कस्तूरी, कृष्णपुष्प, कृष्णांग भैंस, उपानह आदि करना चाहिए। शनि ग्रह से संबंधित दान के लिए मध्याह्न >का समय सर्वश्रेष्ठ होता है। यह दान ब्राह्मण के स्थान पर भड्डरी को मध्यान्ह के बाहर बजे दिया जाता है। क्या-क्या और कितना दिया जाये, यह आपकी श्रद्धा और सामर्थ्य पर निर्भर रहेगा। शनि ग्रह के मंत्र ‘ॐ प्रां प्रीं प्रौं सः शनैश्चराय नमः’ का कम से कम 23000 की संख्या में जाप तथा शनि ग्रह की लकड़ी शमी >से शनि ग्रह के बीज मंत्र की एक माला का यज्ञ करना चाहिए। हवन पूर्णाहुति के बाद तेल में पकी हुई वस्तुओं को देने के बाद काला वस्त्र, केवल उड़द तथा देसी (चमड़े का) जूता तेल लगाकर दान करें। इस व्रत से सब प्रकार की सांसारिक परेशानियां दूर हो जाती हैं। झगड़े में विजय होती है। लोह-मशीनरी, कारखाने वालों के व्यापार में उन्नति होती है। देवता भाव के भूखे होते हैं। अतः श्रद्धा एवं भक्ति भाव पूर्वक सामर्थ्य के अनुसार पूजा, जप, तप, ध्यान, होम- हवन, दान दक्षिणा, ब्रह्म भोज करना चाहिए।
शनि शांति का सरल उपचारः- घर के पर्दे, जूते, जुराब, घड़ी का पट्टा, रुमाल आदि काले रंग के धारण करें।
शनिवार व्रत कथा |
एक बार सूर्य, चंद्रमा, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु और केतु नौ ग्रहों में आपस में विवाद हो गया कि हम सब में सबसे बड़ा कौन है? सब अपने आप को बड़ा कहते थे। जब आपस में कोई निश्चय में न हो सका तो सब आपस में झगड़ते हुए इंद्र के पास गए और कहने लगे-आप सब देवताओं के राजा हो, इसलिए आप हमारा न्याय करके बतलाओ कि हम नव ग्रहों में सबसे बड़ा कौन है? राजा इंद्र इनका यह प्रश्न सुनकर घबरा गये और कहने लगे कि मुझ में यह सामर्थ्य नहीं है, जो किसी को बड़ा या छोटा बतलाऊं। मैं अपने मुख से कुछ नहीं कह सकता। हां, एक उपाय है, इस समय पृथ्वी पर राजा विक्रमादित्य सबसे अच्छा और सटीक न्याय करने वाला है। इसलिए तुम सब उन्ही के पास जाओ, वह सही निर्णय कर देंगे।
इन्द्र के ये वचन सुनकर सब ग्रह-देवता भूलोक में राजा विक्रमादित्य की सभा में आकर उपस्थित हुए और अपना प्रश्न राजा के सामने रखा। राजा विक्रमादित्य उनकी बात सुनकर बड़ी चिंता में पड़ गये कि मैं अपने मुख से किसको बड़ा और किसको छोटा बतलाऊं। जिसको छोटा बतलाऊं वही क्रोध करेगा। उनका झगड़ा निपटाने के लिए राजा ने एक उपाय सोचा। उन्होंने सोने, चांदी, कांसा, पीतल, शीश, रांगा, जस्ता, अभ्रक और लोहा नौ धातुओं के आसन बनवाये। सब आसनों के क्रम से जैसे सोना सबसे आगे और लोहा सबसे पीछे बिछाये गए। इसके पश्चात् राजा ने सब ग्रहों से कहा कि आप सब अपने-अपने आसनों पर बैठिए, जिसका आसन सबसे आगे, वह सबसे बड़ा और जिसका आसन सबसे पीछे वह सबसे छोटा जानिए। क्योंकि लोहा सबसे पीछे था। वह शनिदेव का आसन था। इसलिए शनिदेव ने समझ लिया। कि राजा ने मुझ को सबसे छोटा बताया है। इस पर शनिदेव को बड़ा क्रोध आया और कहा-हे राजा! तू मेरे परक्रम को नहीं जानता।
सूर्य एक राशि पर 1 महीने, चंद्रमा सवा दो दिन, मंगल डेढ़ महीना, बृहस्पति 13 महीने, बुध और शुक्र एक-एक महीने, राहु और केतु दोनों उल्टे चलते हुए केवल 28 महीने एक राशि पर रहते हैं। परंतु मैं एक राशि ढाई अथवा साढे़ 7 साल तक रहता हूं। बड़े-बड़े देवताओं को भी मैंने भीषण दुःख दिया है। राजन सुनो! रामजी को साढ़ेसाती आई और वनवास हो गया। रावण पर आई तो राम और लक्ष्मण ने लंका पर चढ़ाई कर दी। रावण के कुल का नाश कर दिया। हे राजा! तुम अब सावधान रहना। राजा ने कहा, जो कुछ भाग्य में है देखा जाएगा। उसके बाद अन्य ग्रह तो प्रसन्नता के साथ चले गए परंतु शनिदेव तो वहां से बड़े ही क्रोध से सिधारे।
कुछ काल व्यतीत होने पर राजा को साढ़े-साती की दिशा आई। शनिदेव घोड़ों के सौदागर बनकर अनेक सुंदर घोड़ों के सहित राजा की राजधानी में आये। जब राजा ने सौदागर के आने की खबर सुनी तो अपने अश्वपाल को अच्छे-अच्छे घोड़े खरीदने की आज्ञा दी। अश्वपाल ऐसी अच्छी नस्ल के घोड़े देखकर और उनका मूल्य सुनकर चकित रह गया तुरन्त ही राजा को खबर दी। राजा उन घोड़ों को देखकर एक अच्छा-सा घोड़ा चुनकर उस पर सवारी के लिए चढ़ा। राजा के घोड़े की पीठ पर चढ़ते ही थोड़ा जोर से भागा। घोड़ा बहुत दूर एक बड़े जंगल में जाकर और राजा को छोड़कर अदृश्य हो गया। इसके बाद राजा अकेला जंगल में भटकता फिरता रहा। बहुत देर के पश्चात राजा ने भूख और प्यास से दुःखी होकर भटकते-भटकते एक ग्वाले को देखा। ग्वाले ने राजा को प्यास से व्याकुल देखकर पानी पिलाया। राजा की उंगली में एक अंगूठी थी। वह उसने निकालकर प्रसन्नता के साथ ग्वाले को दे दी और शहर की ओर चल दिया।
राजा शहर में पहुंचकर एक सेठ की दुकान पर जाकर बैठ गया। राजा ने अपने आप को उज्जैन का रहने वाला तथा अपना नाम वीका बतलाया। सेठ ने उसको एक कुलीन मनुष्य समझ कर जल आदि पिलाया। भाग्यवश उस दिन सेठ की दुकान पर बिक्री बहुत अधिक हुई, तब सेठ उसको भाग्यवान पुरुष मानकर भोजन कराने के लिए अपने घर ले गया। भोजन करते समय राजा ने एक आश्चर्य की बात देखी कि एक खूंटी पर हार लटकर रहा है और वह खूंटी उस को निगल रही हैं। भोजन के पश्चात कमरे में आने पर जब सेठ को कमरे में हार न मिला तो सब ने ही निश्चय किया कि सिवाय वीका के और कोई इस कमरे में नहीं आया, अतः अवश्य ही उसी से हार चोरी किया है। परंतु वीका ने हार लेने से मनाहि की। इस पर 5-7 आदमी इकट्ठे हो कर उसको फौजदार के पास ले गए। फौजदार ने उसको राजा के सामने उपस्थित कर दिया और कहा-यह आदमी तो भला प्रतीत होता है, चोर नहीं मालूम होता, परंतु सेठ का कहना है कि इसके सिवाय और कोई घर में आया ही नहीं, अवश्य ही इसी ने चोरी की हैं। तब राजा ने आज्ञा दी कि इसको हाथ-पैर काट कर चौरंगिया किया जाए। राजा की आज्ञा का तुरन्त पालन किया गया और वीका के हाथ-पैर काट दिए गए। अब राजा विक्रमादित्य अपाहिज होकर दर-दर की ठोकरें खाने लगा।
कुछ काल व्यतीत होने पर एक तेली उसको अपने घर ले गया और कोल्हू पर बिठा दिया। वीका उस पर बैठा हुआ। अपनी आवाज से बैल हांकता रहता। कुछ वर्षों में शनि की दशा समाप्त हो गई और एक रात को वर्षा ऋतु में 1 दिन वीका मल्हार राग गाने लगा। उसका गाना सुनकर उस शहर के राजा की कन्या उस राग पर मोहित हो गई और दासी को खबर लाने के लिए भेजा कि शहर में कौन गा रहा है। दासी ने देखा कि तेली के घर में चौरंगिया मल्हार राग गा रहा है। दासी ने महल में आकर राजकुमारी को सब वृत्तांत सुनाया। उसी क्षण राजकुमारी ने अपने मन में यह प्रण कर लिया, चाहे कुछ भी हो मुझे चौरंगिया के साथ विवाह करना है। प्रातःकाल होते ही जब दासी ने राजकुमारी को जगाया तो राजकुमारी अनशन व्रत लेकर पड़ी रही। तब दासी ने रानी के पास जाकर राजकुमारी के न उठने का वृत्तांत कहा। रानी ने तुरन्त ही वहां आकर राजकुमारी को जगाया और उसके दुःख का कारण पूछा। तब राजकुमारी ने कहा कि माता जी, मैंने यह प्रण कर लिया है कि तेली के घर में जो चौरंगिया है।उसी के साथ विवाह करूंगी। माता ने कहा पगली यह क्या बात कह रही है। तुझको किसी देश के बड़े राजा के साथ परणाया जाएगा। कन्या कहने लगी कि माता जी, मैं अपने प्रण कभी नहीं तोडूंगी। माता ने चिंतित होकर यह बात राजा को बताई। जब महाराज ने भी आकर यही समझाया कि मैं अभी देश-देशांतर में अपने दूत भेजकर सुयोग्य, रूपवान एवं बड़े-से-बड़े गुणी राजकुमार के साथ तुम्हारा विवाह करूंगा। ऐसी बात तुमको कभी नहीं विचारनी चाहिए। कन्या ने कहा, पिता जी! मैं अपने प्राण त्याग दूंगी परंतु दूसरे से विवाह नहीं करूंगी। इतना सुनकर राजा ने क्रोध में भरकर कहा-
यदि तेरे भाग्य में ऐसा ही लिखा है तो जैसी तेरी इच्छा हो वैसा ही कर। राजा ने तेली को बुलाकर कहा कि तेरे घर में जो जो चौरंगिया है उसके साथ मैं अपनी कन्या का विवाह करना चाहता हूं। तेली ने कहा कि यह कैसे हो सकता है, कहां आप हमारे राजा और कहां मैं नीच तेली। राजा ने कहा-भाग्य के लिखे को कोई टाल नहीं सकता, अपने घर जाकर विवाह चौरंगिया विक्रमादित्य के साथ कर दिया। रात्रि को जब विक्रमादित्य और राजकुमारी महल में सोये हुए थे। तब आधी रात के समय शनि देव ने विक्रमादित्य को स्वप्न दिया। कि राजा से कहो मुझको छोटा बतला कर तुमने कितने दुःख उठाये? राजा ने क्षमा मांगी। शनिदेव ने प्रसन्न होकर विक्रमादित्य को हाथ पैर दिये। तब राजा ने कहा-महाराज, मेरी एक प्रार्थना स्वीकार करें। जैसा दुःख आपने मुझे दिया है, ऐसा और किसी को न देना। शनिदेव ने कहा-तुम्हारी यह प्रार्थना स्वीकार है। जो मनुष्य मेरी कथा सुनेगा या कहेगा। उसको मेरी दशा में कभी किसी प्रकार का दुःख नहीं होगा और जो नित्य यही मेरा ध्यान करेगा या चीटियों को आटा डालेगा उसके सब मनोरथ पूर्ण होंगे। इतना कहकर शनिदेव अपने धाम को चले गये। जब राजकुमारी की आंख खुली और उसने राजा की हाथ-पांव देखे तो आश्चर्यचकित रह गई। राजा ने अपनी पत्नी से अपना समस्त हाल कहा कि मैं उज्जैन का राजा विक्रमादित्य हूं। यह बात सुनकर राजकुमारी अत्यंत प्रसन्न हुई। प्रातःकाल राजकुमारी से उसकी सखियों ने पूछा तो उसने अपने पति का समस्त वृत्तांत कह सुनाया। तब सब ने प्रसन्नता प्रकट की और कहा कि ईश्वर ने आपकी मनोकामना पूर्ण कर दी।
जब उस सेठ से यह बात सुनी तो वह सेठ विक्रमादित्य के पास आया और उसके पैरों से गिरकर क्षमा मांगने लगा कि आप पर घर पर मैंने चोरी का झूठा दोष लगाया था, अतः आप मुझको जो चाहे दंड दें। राजा ने कहा-मुझ पर शनि देव का कोप था। इसी कारण यह सब दुःख मुझ को प्राप्त हुआ। इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं, तुम अपने घर चलकर प्रीतिपूर्वक भोजन करेगें। राजा ने कहा-जैसी आपकी मर्जी हो वैसा ही करें। सेठ ने अपने घर जाकर अनेक प्रकार के सुंदर भोजन बनवाये और राजा विक्रमादित्य को प्रीतिभोज दिया। जिस समय राजा भोजन कर रहे थे, एक अत्यंत आश्चर्य की बात सबको दिखाई दी। जो खूंटी पहले हार निगल गई थी, वह अब हार उगल रही है। जब भोजन समाप्त हो गया तो सेठ ने हाथ जोड़कर बहुत-सी मोहरे राजा को भेंट की और कहा-मेरे श्रीकंवरी नामक एक कन्या है।
उसका पाणिग्रहण आप करें। इसके बाद सेठ ने अपनी कन्या का विवाह राजा विक्रमादित्य के साथ कर दिया और बहुत-सा दान-दहेज आदि दिया। इस प्रकार कुछ दिनों तक वहां निवास करने के पश्चात विक्रमादित्य ने शहर के राजा से कहा कि अब मेरी उज्जैन जाने की इच्छा है। फिर कुछ दिन बाद विदा लेकर राजकुमारी मनभावनी, सेठ की कन्या श्रीकंवरी तथा दोनों जगह से दहेज में प्राप्त अनेक दासों, दासियों, रथों और पालकियों सहित विक्रमादित्य उज्जैन की तरफ चले। जब शहर के निकट पहुंचे और पुरवासियों ने राजा के आने का संवाद सुना तो समस्त उज्जैन की प्रजा अगवानी के लिए आई। बड़ी प्रसन्नता से राजा अपने महले में पधारे।
सारे शहर में बड़ा भारी महोत्सव मनाया गया और रात्रि को दीपमाला की गई। दूसरे दिन राजा ने शहर में यह मुनादी करा दी कि शनिश्चर देवता सब ग्रहों के सर्वोपरि है। मैंने इनको छोटा बतलाया, इसी से मुझको भीषण दुःख प्राप्त हुआ। इस कारण सारे शहर में सदा शनिश्चर की पूजा और कथा होने लगी और प्रजा अनेक प्रकार के सुख भोगती रही। जो कोई शनिश्चरा की इस कथा को पढ़ता अथवा सुनता है, शनि देव की कृपा से उसके सब दुःख दूर हो जाते हैं। शनिदेव की कथा को व्रत के दिन अवश्य पढ़ना चाहिए। ओम शांति! ओम शांति!! ओम शांति!!!
शनिदेव की आरती |
जय जय श्री शनिदेव भक्तन हितकारी। सूर्य पुत्र प्रभु छाया महतारी॥ जय जय श्री शनि देव श्याम अंग वक्र-दृष्टि चतुर्भुजा धारी। नीलाम्बर धार नाथ गज की असवारी॥ >जय जय श्री शनि देव क्रीट मुकुट शीश राजित दिपत है लिलारी। मुक्तन की माला गले शोभित बलिहारी॥ >जय जय श्री शनि देव मोदक मिष्ठान पान चढ़त हैं सुपारी। लोहा तिल तेल उड़द महिषी अति प्यारी॥ >जय जय श्री शनि देव देव दनुज ऋषि मुनि सुमिरत नर नारी। विश्वनाथ धरत ध्यान शरण हैं तुम्हारी॥जय जय श्री शनि देव भक्तन हितकारी।।